क्या गांधी के बिना भी देश की आजादी मुमकिन थी?

भारत में महात्मा गांधी न होते तो भी अंग्रेजों का राज यहां हमेशा नहीं रहने वाला था। यह बात मानना किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए कठिन नहीं है, जिसे दुनिया के गुलाम देशों की आजादी के इतिहास की जानकारी हो, उसकी समझ हो।

भारत की राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लड़ाई में गांधीजी सन 1915 से सक्रिय हुए। आजादी की जंग उसके भारत पुनः आगमन से आधी सदी पहले से चल रही थी। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधीजी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को अनोखा और अजोड़ बना दिया। उनकी वजह से ही इसमें तीन खास बातें जुड़ गईं।

पहली खासियत यह है कि गांधीजी ने लोगों के मन में यह बात बैठा दी थी कि सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते पर चलकर ही स्वराज मिलेगा। अपनी इस बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने लगातार प्रयास किया था। यही नहीं, कठिन मौकों पर उन्होंने ऐसे कदम भी उठाए, जो कइयों को ठीक नहीं लगे। लेकिन उन अलोकप्रिय फैसलों की वजह समझाकर गांधीजी ने अहिंसा और सत्याग्रह का मर्म गांव-गांव तक पहुंचा दिया। और जब इनका मतलब लोगों को समझ में आ गया, तो आम लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन को अपना बना लिया। उससे उनकी कोई दूरी नहीं रह गई।

दूसरी खासियत यह थी कि गांधीजी ने स्वराज की राजनीतिक और सामाजिक परिभाषा के बीच लंबे समय से चली आ रही उलझन को दूर कर दिया। उन्होंने कहा कि चाहे आर्थिक स्वराज हो, नैतिक स्वराज हो या राजनीतिक और सामाजिक स्वराज, ये एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। ये सभी एक ही इमारत के चार खंभे हैं।

तीसरी खास बात यह थी कि गांधीजी ने अपनी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं आने दिया। उन्होंने निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं रखा। आश्रमों से शुरू करके जनआंदोलन तक, उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दूरी और छुआछूत जैसी कुप्रथाओं पर वार किया। यही नहीं, उन्होंने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से दूर रखने की मर्दवादी परंपरा की जड़ें भी हिला दीं।

आज अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी की जो भूमिका थी, उसने भारतीय समाज और राष्ट्रीयता को नए सिरे से गढ़ने में मदद की। और यह प्रयास किया गया अहिंसक और नैतिक आधारों के जरिए। यह बात भी है कि गांधी ने जो लक्ष्य तय किए, उनमें से कई मामलों में आधा-अधूरापन रहा। जैसे हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद की ताकतों ने अंग्रेज शासकों की मदद से गांधीजी की आंख के आगे ही भारत का बंटवारा करा दिया। लेकिन स्वराज की जो दिशा देश ने गांधीजी के तीन दशकों के प्रयासों से पहचानी और स्वीकार की, उसी राह पर चलना भारत की जिम्मेदारी बन गया।

गांधीजी ने राष्ट्रीयता का जो रूप हमारे सामने रखा, वह किसी एक पहलू तक सीमित नहीं था, एकांगी नहीं था। उसमें सबके लिए जगह है। वह बहुआयामी है। उन्होंने सभी धर्मों को एकसमान मानने, सभी भाषाओं का सम्मान करने, पुरुषों और महिलाओं को बराबर का दर्जा देने और दलितों-गैर दलितों के बीच की युगों से चली आ रही खाई को पाटने पर जोर दिया। जब संविधान बनाया गया, तो इस बात का पूरा खयाल रखा गया कि बहुआयामी राष्ट्रीयता के जिस स्वरूप पर गांधीजी ने जोर दिया था, उसे बनाए रखा जाए।

आज आप उन देशों पर नजर डालिए, जिन्हें हमारे देश की आजादी के आसपास ही गुलामी से छुटकारा मिला। आप पाएंगे कि भारत में राष्ट्रीय एकता की भावना कहीं ज्यादा मजबूत है। उन देशों के मुकाबले भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था बेहतर है। समाज के आखिरी पायदान पर मौजूद व्यक्ति को अकेला न छोड़ दिया जाए, उसका जीवन भी सुधरे, इसका जो संकल्प हमारे यहां दिखता है, वह उन देशों में उतनी मजबूती से नहीं दिखता। कई उतार-चढ़ावों के बावजूद अगर हम आज भी बेहतर देश बने हुए हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह सबको साथ लेकर चलने वाली राष्ट्रीयता की वह भावना है, जिसके लिए महात्मा ने प्रयास किया।

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