मणिपुर -1

मणिपुर

मणिपुर के दो स्पष्ट भौगोलिक भाग हैं:  इम्फाल घाटी और पहाड़ । राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग दस प्रतिशत इम्फाल घाटी में है । सोलह प्रशासनिक जिलों (डिस्ट्रिक्स) में पाँच इम्फाल घाटी में हैं, शेष पहाड़ो में । घाटी में मुख्यतः मैईती लोग रहते हैं और पहाड़ी जिलों में जनजातियाँ बसीं हैं । मैईती जो जनजाति नहीं गिने जाते, पहाड़ों में नहीं बस सकते ।

मणिपुर की जनजातियों के पैंतीस कबीले मुख्यतः दो नस्ली समूहों के हैं: कूकी और नागा । राज्य के पहाड़ी जिलों में ये कबीले रहते हैं । चार जिलों में (जिनमे चूड़चंद्रपुर भी है) मुख्यतः कूकी बसे हैं । कूकी और नागा उन्नीसवीं सदी के मध्य तक मुख्यतः प्रकृति-पूजक थे । उन्नीसवीं सदी के अंत या बीसवीं सदी की शुरुआत से वे (कूकी और नागा) ईसाई हैं । अधिकांश मेइती कम से कम अठारहवीं सदी से हिन्दू हैं, करीब आठ प्रतिशत मुसलमान भी हैं ।

मणिपुर की जनसंख्या का 53 प्रतिशत मेइती हैं और करीब 15.6 प्रतिशत कूकी । कूकी की प्रतिशत जनसंख्या बढ़ रही है । 1951 की जनगणना में 81,380 कूकी थे जो कि मणिपुर की आबादी का 14.06% था । 2011 की जनगणना में वे 4,48,214 थे जो कि आबादी का 15.60% होता है।

इम्फाल घाटी के जिलों में,  पहाड़ी जिलों की अपेक्षा यातायात, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाएं बहुत अधिक विकसित हैं । निजी व्यवसाय और सरकारी कार्यालय भी घाटी के जिलों में अधिक हैं । रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा को देखते हुए कूकी भी घाटी के जिलों में बसना चाहते हैं । दूसरी तरफ, मेइती के लिए मणिपुर में बस घाटी के ये पाँच जिले बसने के लिए उपलब्ध हैं ।

मेइती समुदाय का कहना है, म्यांमार से कूकी अवैध रूप से आकर मणिपुर के पहाड़ी जिलों में में बस रहे हैं जिसके चलते राज्य की आबादी में कूकी का प्रतिशत बढ़ रहा है । (कूकी कबीलों के लोग भारत के पूर्वोत्तर प्रांतों के अलावा म्यांमार में और बांग्लादेश के चटगाँव पहाड़ों में भी सैकड़ों साल से रहते आये हैं । म्यांमार में वे चिन कहे जाते हैं।)

मणिपुर कई दशकों से अशांत क्षेत्र रहा है। कुछ थानों को छोड़ कर पूरे राज्य में आर्म्ड फ़ोर्सेस स्पेशल पावर्स ऐक्ट (एएफएसपीए / आफस्पा) लागू रहता आया है। इसी ऐक्ट को हटाने के लिए ईरोम शर्मिला सोलह वर्षों तक भूख हड़ताल पर रही थीं।

एएफएसपीए लागू होने / रखने का कारण विद्रोह (इंसर्जेन्सी) की घटनाएं / आशंका हैं। मणिपुर में अनेक विद्रोही संस्थाएं सक्रिय हैं। स्थिति ऐसी है कि हाल की हिंसा भड़कने पर हमारे सेना-प्रमुख जनरल अनिल चौहान को  कहना पड़ा था कि, मणिपुर की स्थिति को विद्रोह दबाने (काउंटर इंसर्जेन्सी) से कुछ लेना देना नहीं है। यह मामला मुख्यतः नस्ली है - दो समुदायों, कूकी और मेइती, का संघर्ष।

कूकी अनुसूचित जनजाति हैं, मेइती नहीं। लम्बे अरसे से, शायद कई दशकों से, मेइती मांग कर रहे हैं कि उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाए और इसके लिए वे राज्य सरकार और केंद्र सरकार को ज्ञापन भी देते रहे हैं। दस साल पहले, 2013 में केंद्र सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय ने मेइती कार्यकर्ताओं से मिले और ज्ञापन को भेजते हुए राज्य सरकार से उस पर मंतव्य मांगे थे। अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने के लिए प्रस्ताव राज्य सरकार से ही आ सकता हैं।

27 मार्च को मणिपुर उच्च न्यायालय (कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश की एकल पीठ) ने मेइती ट्राइब्स यूनियन के कुछ सदस्यों द्वारा दायर की गयी याचिका पर अपना आदेश पारित किया था। याचिकादाताओं के निवेदन में कहा गया था कि राज्य सरकार अनुसूचित जनजाति में उन्हें शामिल नहीं करके उन्हें समानता के और मर्यादा के साथ जीने के अधिकारों से वंचित कर रही है, जो अधिकार संविधान की धारा 14 और 21 में प्रतिष्ठापित हैं। 

उच्च न्यायालय ने इस निवेदन में कुछ दम पाया और राज्य सरकार को  मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने पर विचार कर चार सप्ताह के अंदर केंद्र सरकार को अपनी अनुशंसा भेजने का निर्देश दिया। अभी कुछ मेइती ओबीसी या अनुसूचित जाति में आते हैं। (मणिपुर का पुराना राज परिवार मेइती समुदाय का रहा था।)

कूकी समुदाय ने उच्च न्यायालय के इस आदेश का घोर विरोध किया। विरोध के निम्नलिखित कारण बताए जाते हैं:
1.  मेइती समाज को मणिपुर के पहाड़ी जिलों में बसने के अधिकार मिल जाएंगे ।
2.  मेइती, बहुसंख्यक समाज, भी राज्य सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का अधिकारी बन जाएगा।
3. मणिपुर के पहाड़ी जिलों में प्रचुर खनिज सम्पदा के आसार मिले हैं - चूना पत्थर, पेट्रोलियम, क्रोमाइट, ताम्बा और प्लैटिनम ग्रुप के तत्व/धातु, कहा जा रहा है कि पहाड़ी जिलों में मेइती के बसने की अनुमति दिलाने के पीछे इन खनिज सम्पदा का लाभ बहुसंख्यक मेइती को पहुंचाने की भी साजिश है।

लेकिन इस आदेश के पहले से कूकी समाज में असंतोष व्याप्त था। 2019 से मणिपुर सरकार ने सुरक्षित वन-क्षेत्रों के अंदर बसे लोगों को निकालने का अभियान चला रखा था। कूकी का कहना है, ये क्षेत्र उनकी पैतृक भूमि है। ध्यातव्य है कि करीब सौ साल पहले तक कूकी स्वतंत्र थे। 1919 में ऐंग्लो कूकी युद्ध के बाद उनके पहाड़ों पर भारत सरकार का कब्जा हुआ था। अपनी स्वतन्त्रता पुनः हासिल करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध में कूकी जापान की सेना और नेताजी के आईएनए के साथ मिल कर ब्रिटेन के खिलाफ लड़े थे जब कि मणिपुर के ही नागा सैनिक भारतीय सेना के साथ थे. 

कूकी के असंतोष का एक कारण यह भी था कि विकास कार्यों पर अधिकतर खर्च इम्फाल घाटी में होता आया है। यह भी कहा जाता है कि पहाड़ी जिलों में कहीं कहीं पर कूकी अफीम की खेती करते हैं जिसे मणिपुर सरकार ख़त्म करने पर लगी हुई है।

म्यांमार से आते चिन (कूकी) को लेकर भी मतभेद हैं - कूकी कहते हैं वैसे कोई नहीं हैं जब कि इसी मुद्दे पर करीब तीस साल पहले नागा और कूकी के बीच महीनों सशस्त्र संघर्ष चला था जिसमे, कहा जाता है, चार सौ लोग मारे गए थे।
हिंसा के वर्तमान दौर में, जो मई से देखा जा रहा है, सरकार की भूमिका बहुत सराहनीय नहीं दिखती और अब जब इसके प्रमाण मिल रहे हैं कि राष्ट्रीय महिला आयोग को बलात्कार की सूचना ईमेल से दो बार भेजी गयी थी पर कोई प्रतिक्रया नहीं हुई तो यही लगता है कि केंद्र सरकार ने मणिपुर के ऊपर अपनी आँखें बंद रखीं थीं। 

क्या यह सच है, जैसा मिजोरम के भाजपा नेता आर वेनराम्छूएंगा अपना त्यागपत्र देते समय कहा था , "मणिपुर में गिरजाघरों के जलाए जाने में राज्य और केंद्र दोनों शक्तियों की मिलीभगत थी"।

सेना निश्चित ही कुछ दिनों में आगजनी, लूट-मार आदि रोकने में सफल होगी लेकिन समाज में विश्वास और सद्भाव बनाए रखने का स्थाई जिम्मा सेना को नहीं दिया जा सकता। मणिपुर में इसी सदी में आसाम राइफल्स के मुख्यालय के सामने बारह निर्वस्त्र स्त्रियों ने एक बलात्कार के विरुद्ध प्रदर्शन किया था, जिस प्रदर्शन के बाद मणिपुर के कुछ क्षेत्रों पर से एएफएसपीए हटा दिया गया ।

मणिपुर में सामाजिक चेतना जगाने में महिलाएँ अनेक दशकों से सक्रिय रही हैं। मुझे तो बस उन्ही की सहभागिता से वहाँ कुछ हो सकने की उम्मीद है। बाकी, इन मंत्रियों के लिए एक अज्ञात शायर का यह शेर:

कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है।
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते।।

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