मनेर के सूफ़ी

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मनेर के सूफ़ी (1) सूफ़ी और तसव्वुफ़

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अंग्रेजी शब्द ‘मीस्टिक’ के लिए बहुत सटीक हिंदी पर्याय नहीं मिलता है, वैसे हिंदी आलोचना में अंग्रेजी ‘मीस्टिसिज़्म’ के लिए हिंदी ‘रहस्यवाद’ का उपयोग अब करीब सौ वर्षों से किया जा रहा है l गुरुदेव की गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद ने पाश्चात्य आलोचकों को स्तंभित कर दिया था और उन्होंने एक मत से गुरुदेव को मीस्टिक और उनकी कविताओं को मीस्टिकल बताया l इसी के प्रभाव से 1925 के आस पास से हिंदी आलोचना में ‘रहस्यवाद’ शब्द आ गया l 1920 से पहले इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है l जब यह शब्द आ गया तो इसका जम कर उपयोग भी हुआ l कबीर और जायसी की पहचान रहस्यवादी कवियों के रूप में हुई, उनके रहस्यवाद की विस्तृत विवेचना हुई, उनके रहस्यवाद की परस्पर भिन्नताएं आँकी गयीं और ढेर सारे शोधार्थी पी. एचडी. से अलंकृत भी हुए l यह विचारणीय है कि, विलायत में गुरुदेव के मीस्टिक घोषित किये जाने के पहले हमारे देश में, हिंदी में, वैसा शब्द क्यों नहीं था? उस शब्द की आवश्यकता क्यों नहीं थी?

पाश्चात्य चिंतन में अंग्रेजी शब्द मीस्टिसिज़्म से तात्पर्य है ईश्वर की स्पष्ट, अपरोक्ष, साक्षात अनुभूति का प्रयास या उसका वर्णन l वहीँ ‘मीस्टिक’ स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, उस स्थिति में हम ईश्वर के साथ एकात्म हो जाते हैं और हमारी चेतना उस एकात्मकता के प्रति जागरूक रहती है l स्पष्ट है, मीस्टिक के इस अर्थ के लिए, जहाँ यह एक स्थिति का विशेषण है, ‘रहस्यवादी’ एक अनुपयुक्त पर्याय है l वहीँ, पाश्चात्य चिंतन में मीस्टिकल अनुभव को धार्मिक, आध्यात्मिक (आत्मिक?) और पवित्र अनुभव बताये गए हैं l इस से ऐसा लगता है, रहस्यवाद शब्द की आवश्यकता हिन्दू चेतना को कभी नहीं रही होगी, और इसलिए हिंदी भाषा को भी इसकी आवश्यकता नहीं रही l अद्वैत चिंतकों के अनुसार कोई व्यक्ति (आत्मा) कभी भी ईश्वर (ब्रह्म) से भिन्न हो ही नहीं सकता और जब भिन्न हो ही नहीं सकता तो एकात्म हो सकने के प्रयास के क्या प्रयोजन? हाँ, उस एकात्मकता का अनुभव कर पाने के प्रयास आवश्यक हैं और इसके लिए हिन्दू परम्परा ने अनेक मार्ग बताये, जिसमें से तीन हैं हठयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग l

इस्लाम के ‘रहस्यवादी’ इन तीनो का प्रयोग करते आये हैं l हिन्दुओं के हठयोग से एकदम अलग उनके शारीरिक और आध्यात्मिक व्यायाम होते थे, ईश भक्ति के रस में वे डूबे रहते थे और यद्यपि उनका मार्ग ज्ञान मार्ग नहीं कहा जा सकता l फिर भी सूफियों द्वारा लिखे गए उनके अनुभवों के संकलन से एक ‘सूफी दर्शन’ का भी उद्भव हुआ जो मुख्यतः धर्मशास्त्र की पारंपरिक इस्लामी व्याख्या से हट कर सत्य के अन्वेषक की आत्मिक स्वतंत्रता और आत्मभूत अनुभूति का संवाद है l 

सूफियों की शब्दावली में ईश्वर सत्य (हक़) है और साधक को हक़ीका (वास्तविकता) का संज्ञान किसी रहस्य के अनावरण के रूप में होता है l हक़ का संज्ञान सब को नहीं होता, जिस को होता है उसे आवश्यक नहीं कि हर समय हो l इसे वही देख पाता है जिस की अंतर्दृष्टि विकसित हो गयी हो, जिन्हें हमारे प्राचीन साहित्य में ऋषि कहा गया है l

इस तरह देखने पर कुछ सूफ़ी इस्लाम के ऋषि माने जा सकते हैं l वे सूफ़ी क्यों कहलाते हैं इसे लेकर दो परम्पराएँ दिखी l पहली धारणा, मुख्यतः पाश्चात्य अध्येताओं की, क्योंकि वे मोटे ऊँन के कपडे पहनते थे जिन्हें अरबी में 'सूफ़' कहा जाता था l उनके रहस्यवादी दर्शन ‘तसव्वुफ़’ की व्युत्पत्ति भी उसी सूफ़ से बतायी जाती है l दूसरी परम्परा उन्हें मदीना के शुरुआती दिनों से जोड़ती है l 

सितम्बर 622 में पैगम्बर मक्का से मदीना आये थे, जहाँ वे अपने समुदाय को संगठित करने और नए धर्म के शत्रुओं से उसे सुरक्षित रखने में लग गए l उन शुरुआती दिनों में मुहम्मद ने सबकुछ ईश्वर की इच्छा पर छोड़ते हुए दरिद्रता का जीवन अपनाया था l उनके साथियों (शहाबा) में भी अनेक लोग थे जो मदीना की मस्जिद में रहते थे और घोर दरिद्रता और आत्मदमन का जीवन जीते थे l ये लोग 'अहल अल सुफ़्फ़ा' यानी बरामदे पर के लोग कहलाए l

मुहम्मद के देहांत के बाद सीरिया, इराक, ईरान, मिश्र और अफ्रिका के कई देशों पर 'उम्मा' छा गए थे l नयी जगहों पर नए लोगों और उनकी प्राचीन सभ्यताओं को निकट से देखने के मुसलमानों पर, शहाबा पर भी, गहरे प्रभाव पड़े थे l कुछ ने अकूत सम्पदा जमा कर ली लेकिन अहल अल सुफ़्फ़ा, और कुछ अन्य लोग, उन दिनों भी दरिद्रता के जीवन को अपनाए रहे l यह स्पष्ट देखने को कहीं नहीं मिलता कि इन्ही अहल अल सुफ़्फ़ा से सूफ़ी निकले, लेकिन ऐसा इशारा किया जाता है l

सूफ़ियों का विश्वास रहा है, ईश्वर की साक्षात अनुभूति संभव है और उनका जीवन उस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए, उसे सतत बनाए रखने के लिए अर्पित था / है l सभी धर्मों के साधकों ने शारीरिक और आत्मिक व्यायाम विकसित किये जिन्हें उन्होंने सत्य के गवेषणा में उपयोगी समझा l ईसाई गवेषकों में थॉमस अक्विनास का नाम इस प्रसंग में लिया जा सकता है l ईसाई या सनातन धर्म में ऐसे गवेषकों को स्थापित विचारधारा या तो सहानुभूति से देखी या उनके प्रति मुख्यतः उदासीन रही l

इसके विपरीत इस्लाम में उलेमा (संगठित धर्मविद) ने सूफियों को संदेह की दृष्टि से देखा l कारण स्पष्ट है, सूफियों का यह कहना कि उनकी साधना से, जो कुरआन या अहादीस से कई जगह अलग है, हक़ का साक्षात्कार संभव है परोक्ष भाव से यह कहना है कि बस कुरआन या अहादीस के अनुपालन से हक़ की अनुभूति संभव नहीं है l इस तरह यदि वे अपने ‘तरीक़े’ से सत्य का अन्वेषण करते हैं तो वे अपने तरीक़े को कुरआन मजीद से बेहतर बताते है l

यह भी निर्विवादित सत्य है कि, प्रारम्भ में सूफ़ियों के विचार स्थापित इस्लामी विचार से अलग हुआ करते थे l यहाँ तक कि एक सूफ़ी विचारधारा (बहुत पहले से कलंकित और पूरी तरह निष्क्रिय) पुनर्जन्म में भी विश्वास करती थी l आरम्भ के अधिकतर सूफ़ी यह मानते थे कि, बस स्थापित पारंपरिक इस्लाम के अनुपालन से हक़ीका की निकट नहीं पंहुचा जा सकता है – तात्पर्य था कि उनके तरीक़े पैगम्बर को प्रकट हुए तरीकों से बेहतर है l उलेमा और पुराने सूफ़ियों के बीच वैमनस्य के मूल में यही था l

जैसा हिन्दुओं या पुराने ईसाइयों का विश्वास था, सूफ़ी भी मानते थे कि सत्य (हक़ीका) का दर्शन बिना गुरुकृपा के नहीं हो सकता, गुरु (सूफ़ी शब्दावली में मुर्शिद) के निर्देश में कठोर प्रशिक्षण के बाद ही कोई उस सत्य का अनुभव कर सकता है l सूफ़ीवाद का विकास तो इस्लाम के प्रादुर्भाव के बाद हुआ किन्तु उस क्षेत्र में – सीरिया, लेबनन, दक्षिणी टर्की आदि – पूर्वी चर्च के साधक और खुरासान और आधुनिक अफग़ानिस्तान में हिंदू साधकों के सदियों से रहते आने की परम्परा रही थी l यह सम्भव नहीं है कि प्रारम्भिक सूफ़ी इन विधर्मी साधकों के विचारों से अपरिचित रहे होंगे l जो भी हो, पिछले सौ वर्षों से यह माना जाता है कि, सूफ़ीवाद का विकास मुस्लिम समुदाय के अन्दर से एक सर्वथा आतंरिक विचारधारा के रूप में हुआ l

(यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चालीस के दशक में एक विद्वान् ने अपना मत दिया है कि, मध्य एशिया के चिश्ती संतों ने हिन्दू साधकों से प्राणायाम के प्रयोग को अपनाया था और उनकी साधना में भी हिन्दू योगियों के ‘चक्रों’ पर ध्यान करने से मिलती जुलती एक परम्परा विकसित हुई थी l )

सत्य के अनुभव के मार्ग मुर्शिद ही दिखा सकते थे, इस लिए ऐसे पंहुचे हुए मुर्शिदों के आस पास मुस्लिम साधक जमा होने लगे l सैकड़ो वर्षों तक, यह एक अनिश्चित, बंधन-मुक्त व्यवस्था रही जिसमें कोई साधक कभी भी एक मुर्शिद को छोड़ दूसरे के पास चले जाया करते थे l शिष्य (मुरीद) अपने मुर्शिद के प्रति किसी तरह की अधीनता या आज्ञापालन की शपथ नहीं लेते थे l

उस काल में दो मुर्शिदों की बहुत ख्याति फैली – खुरासान का बिस्तामी और ईराक का जुनैद l बिस्तामी का रास्ता भावातिरेक और हर्षोन्माद का रास्ता था l आने वाले दिनों में अधिकांश शेखों ने जुनैद के रास्ते को अपनाया, उसके उपदेश गंभीर और उद्वेग-हीन थे और उसका बताया मार्ग अधिक सुरक्षित जान पड़ा था l अधिकांश सूफ़ी सिलसिलों (मुर्शिद – मुरीद की परम्परा का नाम सूफ़ी शब्दावली में ‘सिलसिला’ है) में मुहम्मद, अली के बाद जुनैद का नाम पाया जाता है l ध्यातव्य है कि पिछली सदी की शुरुआत में एक पाश्चात्य विद्वान् ने कहा था, पैगम्बर बनने के पहले मुहम्मद एक सूफ़ी थे l वहीँ, सूफ़ी यह मानते रहे हैं कि मुहम्मद हमेशा एक सूफ़ी रहे l

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, मुर्शिदों और उनके पास आते साधकों के बीच प्रारम्भ में कोई बंधन नहीं था l मुर्शिद भी किसी ख़ास जगह पर जमे नहीं रहते थे l कुछ समय बाद मुर्शिदों के स्थायी केंद्र बनने लगे जो अरब में रिबात (आश्रय) कहलाये और खुरासान में खानक़ाह (आश्रम/धर्मशाला) दोनों को हम सूफ़ी मठ समझ सकते हैं l ग्यारहवीं सदी तक इन मठों में मुर्शिदों के साथ रहने वालों के लिए कुछ नियमादि बने l सूफ़ी सुह्बा (भाईचारा, साहचर्य) के नियमों ने धीरे धीरे एक नैतिक व धार्मिक दायित्व का रूप ले लिया और तब मुर्शिद और मुरीद के सम्बन्ध बंधनमुक्त नहीं रहे l कुछ रिबात या खानक़ाह के खर्चे के लिए सामंतों ने वक्फ़ बना दिए थे l ऐसे मठ तो मुख्य (संस्थापक) मुर्शिद की मृत्यु के बाद भी चलते रहे पर अन्य मठ संस्थापकों के देहांत के बाद बिखर जाते थे l

ग्यारहवीं सदी में इस्लाम के इतिहास में एक बड़ा मोड़ आया l इसके पहले शिया सम्प्रदाय ने उत्तरी अफ्रीका और ईरान में राजनैतिक सत्ता में आ कर अपनी जड़ें जमा लीं थी l बग़दाद के अब्बासिद खिलाफत पर बूयिद वंशी शिया ईरानियों का प्रभुत्व छाया हुआ था l ग्यारहवीं सदी के मध्य में सेल्जुक योद्धाओं ने बग़दाद पर विजय प्राप्त कर खिलाफत को शिया प्रभाव से मुक्त किया l

सेल्जुक सुन्ना में विश्वास रखते थे और जो नयी परिपाटी उन्होंने चलाई उसमें शिक्षा संस्थानों से लौकिक विद्याओं (अर्थात धर्मशास्त्र, धर्मविधि आदि के अतिरिक्त कुछ भी) के अध्ययन को बंद करा दिया l शिया शक्ति घटने के बाद सूफ़ी सुह्बे खानक़ाह में बदलने लगे थे l सलादीन ने जेरूसलम में भी खानक़ाह स्थापित किया था l शायद उसी की पहल पर शेख के प्रति निष्ठा की शपथ लेने का रिवाज चला l इस नए माहौल में सूफ़ी चिंतन को फिर संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा, चिंतन से भी अधिक उनके ‘समा’ (ईश पूजन से सम्बंधित संगीत-गोष्ठी) को l

अब सूफ़ी साधक दो किस्म के होने लगे – एक तो जो मठों में मुर्शिदों के साथ रहते थे और दूसरे जो किसी मुर्शिद को यदि मानते भी थे तो उनके साथ नहीं रहते थे, बहुधा वे किसी व्यक्ति विशेष को अपना गुरु नहीं मानते थे l स्वच्छंद विचरने वाले ये सूफ़ी क़लंदर कहलाये l क़लंदर प्रायः अपने को नैतिक नियमों से ऊपर मानते थे l यह प्रवृत्ति कुछ मठों (खानक़ाहों) में भी देखी गयी थी किन्तु बहुत कम l

खानक़ाह मुख्यतः सुन्ना पर आधारित थे l स्त्रियाँ भी सूफ़ी हुईं l बसरा की राबिया निश्चित ही सर्वाधिक प्रसिद्ध सूफ़ी औरत रहीं पर वह कतई अकेली नहीं थी l कहते हैं कि सीरिया के अलेप्पो में सूफ़ी स्त्रियों के सात कॉन्वेंट होते थे l

तेरहवीं सदी में मंगोलों ने बग़दाद पर कब्ज़ा कर लिया था l उनसे बचने के लिए सूफियों ने अरब से दूर देशों में शरण ली - उत्तरपश्चिम में अनातोलिया और दक्षिण पूर्व में भारत - इस तरह अनेक सूफ़ी तुर्की या दिल्ली सल्तनत के क्षेत्र में आ बसे l किन्तु ऐसा नहीं है कि तेरहवीं सदी के पहले भारत में सूफ़ी नहीं आये थे l

तेरहवीं सदी में मंगोलों से बचने के लिए बग़दाद और मेसोपोटामिया के दूसरे केंद्रों से अनेक सूफ़ी अनातोलिया और भारत के लिए निकले थे l लेकिन इसके बहुत पहले से ईरान और खुरासान से कई सूफ़ी पंजाब - मुल्तान में आ चुके थे l इस क्षेत्र में बसने वाले पहले सूफ़ी शायद शेख सफ़ीउद्दीन काज़िरूनी थे जो शिराज के निकट काज़िरुन से आये l उनके पंजाब आने की एक रोचक कहानी है l

सफ़ीउद्दीन के चाचा शेख अबू ईशाक़ (मृत्यु 1035) एक नामी सूफ़ी थे, अपने भतीजे को अपना ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) नियुक्त कर उन्हें एक ऊँट देते हुए अबू ईशाक़ ने कहा था, इसे अपने मन से चलने देना और जिस जगह से यह आगे नहीं बढे वहीँ बस जाना l ऊँट दक्षिण-पूर्व दिशा में चला और एक बंजर रेगिस्तान में पँहुच कर रुक गया l शेख़ सफ़ीउद्दीन भी वहीँ रह गए और उस जगह उन्होंने एक शहर बसाया जो आज 'उच' के नाम से जाना जाता है l

कहानी निराधार है l सिंधु और चेनाब के संगम के निकट बसा उच मरुभूमि में कभी नहीं था l सिकंदर द्वारा बसाया यह शहर कोई चौदह सौ साल पुराना हो चुका था जब शेख सफ़ीउद्दीन का ऊँट वहाँ रुका l लेकिन कहानी महत्वपूर्ण है, बतौर एक मिसाल कि कैसे विख्यात सूफ़ियों को लेकर मिथक रचे जाते रहे हैं l

1178 में मुहम्मद ग़ोरी ने मुल्तान जीता था l उच के निकट उसने एक किला भी बनवाया और अगले पाँच-छह वर्षों में लाहौर समेत पूरा पंजाब उसके अधीन हो गया l पंजाब के ग़ोर साम्राज्य का एक प्रांत हो जाने के बाद ईरान, खुरासान के सूफ़ी शेख़ों ने अपने मुरीदों को उन इलाकों में जाने के हुक्म देने शुरू किये l लेकिन मुहम्मद ग़ोरी के बहुत पहले से सूफ़ी पंजाब आने लगे थे, जैसे अबू ईशाक़ ने शेख सफ़ीउद्दीन को भेजा था l

शेख़ सफ़ीउद्दीन के बाद इस क्षेत्र में सबसे सबसे मशहूर सूफ़ी हुए अली अल-हुज्वीरी, जो संभवतः 1035 में लाहौर आये थे l लाहौर से हुज्वीरी दो बार लम्बी यात्राओं पर निकले थे l 1067 में लाहौर आकर वे अपनी मृत्यु (1072-73) तक वहीँ रहे l बहुत बाद, मुसलमानों ने उन्हें 'दाता गंज बख़्श' (असीमित कोष के दाता) कहना शुरू किया l लाहौर में उनकी मजार पकिस्तान के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों में एक है l

हुज्वीरी ने कई किताबें लिखीं, जिनमे कश्फ़ अल-महजूब सबसे महत्वपूर्ण है l मोटी किताब है, इसमें उस समय तक की सूफ़ी परम्पराओं, विभिन्न सूफ़ी मुर्शिदों के विचार आदि विस्तार से रखे गए हैं l ग्यारहवीं सदी में लाहौर बसे अन्य सूफ़ियों / धर्मविदों के हुज्वीरी से तकरार होते रहते थे l हुज्वीरी ने उनकी सोच को एक जगह ब्राह्मणवाद से प्रेरित भी बताया है l

शुरू से भारत में सूफ़ीवाद परस्पर विरोधी धाराओं के बीच विकसित हुआ l स्थानीय विचारको ने सूफ़ी आगंतुकों के विचार को बार बार चुनौतियाँ दी l भारत में सूफीवाद का इतिहास मुख्यतः इन चुनौतियों और उनके प्रत्युत्तर से प्रेरित हुआ l

सूफियों के भी 'घराने' होते है जिन्हे 'तरीक़ा' कहा गया l प्रायः कोई मुर्शिद अपने अनुभव अपने मुरीदों को बताता था जो उन अनुभवों से लाभान्वित होते हुए उस तरीके पर आगे बढ़ते थे l इस तरह सूफियों के अनेक तरीक़े विकसित हुए l इनमें से एक तरीक़ा, चिश्तिया, मुख्यतः भारत का कहा जा सकता है l

अफ़ग़ानिस्तान में हेरात से कोई सौ किलोमीटर पूर्व एक छोटा सा गाँव है जिसे अब ‘ख़्वाजा चिश्त’ कहा जाता है l कभी इस चिश्त गाँव में सीरिया से सूफी आये थे और यहाँ दो-एक सूफ़ी परम्पराएं पनपी थीं l कालांतर में वह क्षेत्र तुर्की कबीलों का युद्धस्थल हो गया था और शान्त परिवेश खोज रहे सूफियों ने चिश्त छोड़ दिया l

ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, उस काल के सबसे नामी सूफियों में एक, भारत की और चले और अंत में उन्होंने अजमेर को अपना ठिकाना बनाया l ख्वाजा के अजमेर प्रवास पर बहुत भ्रांतियाँ फैली हैं l उनके जीवन का सबसे प्रामाणिक वृत्तांत जमाली का लिखा माना जाता है l जमाली के अनुसार ख्वाजा 1206 में अजमेर आये थे, जिस साल मुहम्मद ग़ोरी का देहांत हुआ था l तराईन के दूसरे युद्ध के कोई चौबीस साल बाद l

लेकिन हिन्दू और मुसलमान दोनों आज तत्परता से विश्वास कर लेते हैं कि ख्वाजा ने ग़ोरी के लिए खुफ़िआगिरी की थी और कुछ तो यह भी कहते हैं उन्होंने ग़ोरी को तारागढ़ को जीतने के लिए कुछ रास्ते बताए थे l जबकि ग़ोरी कभी अजमेर आया ही नहीं l (ग़ज़नी आया था - चिश्ती के बहुत पहले और नहीं जीत पाया था l ) अधिकतर लेखक सूफियों के शिष्यों आदि के लिखे से चीजें बीनते हैं, और ऐसे आलेखों में प्रायः उनके गुरुओं के 'पराक्रम', उनकी अद्भुत शक्तियां आदि वर्णित रहतीं हैं l

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के विषय में बहुत कहानियाँ कही जातीं हैं l एक नजर उन कहानियों पर भी l सर्वाधिक प्रचलित प्रसंग जवाहर-इ फरीदी से लिए गए लगते हैं l यह किताब सत्रहवीं सदी में लिखी गयी थी - ख्वाजा के काल के पाँच सौ वर्षों बाद l इसके अनुसार ख्वाजा के आने के बारह वर्ष पहले पृथ्वीराज की माता ने, जो ज्योतिष और जादू में पारंगत थीं, स्वप्न में ख्वाजा को देखा था l उन्होंने ख्वाजा के चित्र बनाए थे और पृथ्वीराज ने उन चित्रों को अपने अधिकारियों में बँटवा दिए थे कि यह आदमी कभी उनके राज्य में न आ पाए l

दिल्ली से अजमेर आते समय रास्ते में पृथ्वीराज के अधिकारियों ने ख्वाजा को पहचान लिए और वे उनसे वहीँ रुकने को कहने लगे l किन्तु पैगम्बर मोहम्मद ने स्वप्न में ख्वाजा को चेतावनी दे रखी थी और ख्वाजा वहां न रुक कर अपने चालीस शिष्यों, नौकरों के साथ अजमेर आये l

अजमेर वे आनासागर झील के किनारे रुके जहाँ उनके अनुगामियों ने एक गाय काटी और ख्वाजा के लिए कबाब बनाए l उनके लोग हाथ धोने झील में उतरे जहाँ ब्राह्मणों ने उन्हें मना किया l तब ख्वाजा स्वयं आये और जैसे उन्होंने पानी का स्पर्श किया पूरी झील सूख गयी l

ख्वाजा ने फिर झील में स्थित मंदिर की देवमूर्ति को सजीव कर उसे मुसलमान बनाया l यह सब जान कर पृथ्वीराज ने अपने मंत्री जयपाल को भेजा जो बड़ा भारी तांत्रिक था l ख्वाजा और जयपाल के बीच बहुत खेल हुए अंत में जयपाल ने हार मानी और इस्लाम स्वीकार कर लिया l पृथ्वीराज ने तब माफी मांगी और ख्वाजा ने झील को फिर से पानी से भर दिया l

अबुल फज़ल ने एक जगह (अकबरनामा में) लिखा है कि जिस वर्ष ग़ोरी भारत जीतने के लिए निकला उससे पहले ख्वाजा को उनके पीर ने भारत जाने की आज्ञा दी थी और ख्वाजा अजमेर पहुँचे थे जहाँ भारत का राजा पृथ्वीराज रहता था l वहीँ दूसरी जगह (आईन-इ अकबरी में) अबुल फज़ल ने लिखा है कि जिस वर्ष ग़ोरी दिल्ली जीता था उसी वर्ष ख्वाजा दिल्ली पंहुचे थे और दिल्ली की भीड़ भाड़ से बचने के लिए अजमेर को निकल गए l

मुहम्मद सादिक़ दिहलवी का लिखा मिलता है कि, जिस वर्ष ग़ोरी ने राय पिथौड़ा को पराजित कर दिल्ली जीती थी उसी वर्ष ख्वाजा ग़ज़ना से चल कर लाहौर पँहुचे थे l इतिहासकारों के अनुसार अजमेर में ख्वाजा और पृथ्वीराज का एक समय होना असंभव था l फिर भी आज भी ख्वाजा की उन कहानियों को सच मानने वाले मिल जाते हैं - मुसलमान भी और हिन्दू भी l

एक बात और है जिसकी चर्चा यहाँ आवश्यक लगती है - सूफियों के द्वारा हिन्दुओं के धर्मपरिवर्तन l सूफ़ी निस्संदेह इस्लाम को श्रेष्ठ मानते थे और चाहते थे कि हिन्दुस्तानी अपनी काफिरी छोड़ इस्लाम अपना लें लेकिन इसके लिए जोर जबरदस्ती करने का या जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन करने का निर्देश भी किसी 'सूफ़ी' ने नहीं दिया l

शाह वली उल्लाह ने ऐसा जरूर कहा है किन्तु उनमे सूफियों के कोई लक्षण नहीं मिलते l अधिकतर सूफी किसी पथभ्रष्ट मुस्लिम को सही रस्ते पर लाने के अधिक प्रयास करते दीखते हैं बजाए इसके कि गैर-मुस्लिमों को मुस्लिम बनाने के l लेकिन अपने आचार-व्यवहार से, अपनी धार्मिकता और साधुता से वे अच्छी तादाद में हिन्दुओं को इस्लाम के अंदर लाने में सफल हुए थे l 

ख्वाजा मोइनुद्दीन बहुत साधारण जीवन जीते थे - किले के अंदर l अजमेर बसे तुर्की सरदार और उनके द्वारा जबरन मुसलमान बनाए गए लोग ख्वाजा के पास शान्ति खोजने आया करते थे l ख्वाजा के जीवन काल में भी अनेक हिन्दू उनके पास आते थे l अगर चिश्ती परम्पराओं को छोड़ दें तो ख्वाजा द्वारा कराए धर्म परिवर्तन के उल्लेख बस फरिश्ता के लिखे में मिलते हैं: "ख्वाजा के आध्यात्मिक वरदान के चलते भारी तादाद में काफिरों ने इस्लाम कबूला था" l

अजमेर में बसने के बाद ख्वाजा ने शादी की, दो बार l उनकी पहली पत्नी एक मुसलमान सरदार सईद वजिहुद्दीन की पुत्री थीं और दूसरी, सत्ताईस साल बाद, एक हिन्दू राजा की विधवा l दोनों से उनके संतान हुए l 1236 में सत्तानबे वर्ष की उम्र में ख्वाजा का देहांत हुआ l उन्हें उसी जगह दफनाया गया जहाँ उनके दिन गुजरे थे l

समय समय पर उनके भक्तों ने वहां ख़ानक़ाह, मस्जिद, विशाल भव्य दरवाजा आदि बनवाए l सम्राट अकबर को ख्वाजा पर बहुत श्रद्धा थी l कहते हैं अकबर की उदारवादी नीतियां उसकी पहली अजमेर यात्रा के बाद शुरू हुईं थीं l

ख्वाजा के अनेक मुरीदों में दो की चर्चा आवश्यक लगती है. पहले नागौर के शेख हमीदुद्दीन l शेख हमीद नागौर के पास एक बीघे जमीन पर खेती करते थे और उसी की उपज पर रहते थे l नागौर के प्रशासक और बाद में दिल्ली के सुलतान ने भी शेख को बहुत उपहार देने चाहे - नकद पांच सौ रूपये और बे-लगान एक गाँव; शेख ने बिलकुल मना कर दिया था l चिश्ती परम्परा में उपहार लेने पर रोक नहीं है लेकिन शेख हमीदुद्दीन का विश्वास था कि अल्लाह ने उनके लिए अलग रास्ता चुन रखा है l

हिन्दू और मुसलमान के बीच उनके लिए कोई फर्क नहीं था, इतना कि एक भले हिन्दू को वे हमेशा अल्लाह का मित्र (अल्लाह का वली - वली का अर्थ होगा, रक्षित अंग्रेजी का protege) बताते थे l शेख स्वयं शाकाहारी थे, शाकाहार का प्रचार भी करते थे, और जीव ह्त्या के सख़्त खिलाफ थे l किसी की मृत्यु पर कई मुसलमानों में मृतक के नाम से कुर्बानी देकर मांस बाँटने की प्रथा है l शेख ने अपने लिए ऐसा करने से मना कर दिया था - वे किसी पशु की ह्त्या का निमित्त नहीं बनाना चाहते थे l

शेख के द्वारा कभी कोई चमत्कार दिखाने की बात नहीं लिखी गयी है l यह जरूर मिला है कि कभी कुछ लोगों ने उनसे चमत्कार की बात की तो शेख ने कहा था कि साधक की अलौकिक शक्तियां स्त्रियों के रजोधर्म के समान हैं l जैसे कोई स्त्री रजोधर्म को छुपा कर रखती है वैसे ही सूफ़ी को अपनी अलौकिक शक्तियों को छुपा कर रखना चाहिए l

शेख तो कभी सुलतान के पास नहीं गए लेकिन उनके पौत्र, प्रपौत्र आदि ने (उनके पुत्र की मृत्यु उनके जीवन काल में हो गयी थी) दिल्ली सल्तनत में ऊँचे ओहदे पाए l सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने अपनी एक पुत्री का विवाह शेख हमीदुद्दीन के एक अत्यंत धार्मिक वंशज शेख फ़तहुल्लाह (हमीद के पौत्र के पौत्र) से किया था l फ़तहुल्लाह को दिल्ली रास नहीं आयी थी और वे अपनी पत्नी के साथ नागौर के निकट आ बसे थे l

शेख हमीद के चलते नागौर सूफ़ियों का एक बड़ा केंद्र बना, वहाँ बाहर से आकर अनेक सूफ़ी बसे और नागौर की इसी ख्याति के चलते शेख ख़िज़्र (जो शेख मुबारक के पिता और अकबर के नवरत्नों में दो - अबुल फ़ैज़ी और अबुल फ़ज़ल के पितामह हुए) नागौर आकर बसे थे l

ख्वाजा मोईनुद्दीन के चिश्ती तरीक़े के सिलसिले (मुर्शिद-मुरीद की आध्यात्मिक वंशावली को सूफ़ी शब्दावली में सिलसिला कहा गया) में अनेक सूफ़ी हुए l उनमे से तीन की चर्चा आवश्यक है: ख्वाजा के मुरीद क़ुतबुद्दीन बख्तियार काकी, उनके मुरीद शेख फ़रीदुद्दीन (बाबा फ़रीद) और बाबा के मुरीद निज़ामुद्दीन औलिआ l

नोट: श्रृंखला का शीर्षक है मनेर के सूफ़ी, लेकिन मनेर के पहले हिन्दुस्तान में हुए सूफ़ियों की चर्चा उपयोगी लगती है. इसलिए मनेर तक पंहुचने में अभी कुछ देर है l

  

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