जयंती विशेष : भगत सिंह

 

गांधीजी और भगत सिंह के बीच कैसे थे रिश्ते ?

क्या गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश नहीं की थी ? क्या है हकिकत ? आइए जानते है... 


आज हर बहस के केंद्र में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी होते हैं. ऐसे वक्त में भगत सिंह जो करोड़ों भारतीय लोगों के आदर्श हैं वह इनके बारे में क्या सोचते थे आइए आज यह जानते हैं.




'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी'

                                                 - लाल चन्द फ़लक 


शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने बचपन में ही देश को ब्रितानियां हुकूमत से आज़ाद कराने का ख़्वाब देखा. छोटी उम्र से ही उसके लिए संघर्ष किया और फिर देश में स्थापित ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाकर हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया। वह शहीद हो गए लेकिन अपने पीछे क्रांति और निडरता की वह विचारधारा छोड़ गए जो आज तक युवाओं को प्रभावित करती है। आज भी भगत सिंह की बातें देश के युवाओं के लिए किसी प्रतीक की तरह बने हुए हैं।



हालांकि यह बहस भी साथ-साथ चलती रहती है कि भगत सिंह जिन्होंने महज़ 23 साल की उम्र में अपनी जान देश के लिए दे दी उनको दूसरे स्वतंत्रा सेनानियों की तरह पहली पंक्ति में जगह नहीं मिलती। शिकायत खास तौर पर महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को लेकर रहती है। कहा जाता है कि, दो स्वतंत्रता सेनानी इतिहास में ऐसे रहें जिनको जो उचित स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला जीसमे एक नाम भगत सिंह का है तो दूसरा सुभाष चंद्र बोस का।कहा यह भी जाता है कि सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह एक ही विचारधारा के थे, जबकि गांधी और नेहरू उनसे थोड़ा अलग मत रखते थे। महात्मा गांधी तो हिंसा के सख्त खिलाफ थे। आज के दौर में जब नेहरू और गांधी पर कई तरह के इल्ज़ाम लगते हैं तो उनमें से एक यह भी है कि अगर नेहरू और गांधी चाहते तो भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी से बचाया जा सकता था। वहीं पंडित जवाहर लाल नेहरू पर यह भी इल्ज़ाम लगता है कि उन्होंने अपनी चतुराई से इतिहास के पन्ने में अपने लिए वह जगह बना ली जो भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को मिलनी चाहिए थी।


ऐसे में जब आज हर बात के लिए नेहरू और गांधी को कठघरे में डाला जा रहा है तो यह जानना जरूरी है कि भगत सिंह खुद जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के बारे में किस तरह का विचार रखते थे ? साथ ही इस सवाल का जवाब भी तलाशने की कोशिश करेंगे कि क्या वाक़ई महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने का प्रयास नहीं किया था ? जैसा की कई बार इल्जाम लगाया जाता है।


क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने का प्रयास नहीं किया था...?



पूर्ण स्वराज को लेकर गांधी और भगत सिंह के रास्ते बिलकुल अलग थे। गांधीजी अहिंसा को सबसे बड़ा हथियार मानते थे और उनका कहना था कि "आंख के बदले में आंख पूरे विश्व को अंधा बना देगी", जबकि भगत सिंह का साफ मानना था कि बहरों को जगाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। एक का रास्ता केवल राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण पर केंद्रित था जबकि दूसरे की दृष्टि स्वतंत्र भारत को एक समाजवादी और एक समतावादी समाज में बदलने की थी।


1931 में जब भगत सिंह को फांसी दी गई थी तब तक उनका कद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अधिक हो गया था। पंजाब में तो लोग महात्मा गांधी से ज्यादा भगत सिंह को पसंद करते थे। यही वजह है कि भगत सिंह को फांसी मिलने के बाद गांधी जी को भारी विरोध का सामना करना पड़ा था।


भगत सिंह की फांसी के तीन दिन बाद, कांग्रेस का करांची अधिवेशन हुआ। उस वक्त देश भर में भगत सिंह की फांसी का विरोध नहीं करने के लिए गांधीजी के खिलाफ गुस्से का माहौल था। जब गांधीजी अधिवेशन में शामिल होने के लिए पहुंचे, तो नाराज युवाओं द्वारा काले झंडे दिखाकर उनके खिलाफ नारेबाजी की गई। ''डाउन विद गांधी'' लिखा हुआ प्लेकार्ड उन्हें दिखाया गया। यह वह वक्त था जब भगत सिंह युवाओं के प्रतीक बन गए थे।


अब सवाल कि, क्या गांधीजी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया? इसका जवाब है बिल्कुल किया था। गांधीजी और भगत सिंह का आजादी पाने को लेकर रास्ता बेशक अलग रहा हो और इसको लेकर दोनों के बीच मतभेद भी थे, लेकिन अंतिम अवस्था तक आते-आते गांधीजी को भगत सिंह के प्रति बहुत अधिक सहानुभूति हो चली थी। जब भगत सिंह को तय समय से एक दिन पहले ही फांसी दिए जाने की खबर मिली तो गांधीजी काफी देर के लिए मौन में चले गए थे।


महात्मा गांधी ने 23 मार्च 1928 को एक निजी पत्र वाईसरोय को लिखा था जिसमें भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी पर रोक लगाने की अपील की थी। इस बात का जिक्र My Life is My Message नाम की किताब में है। उन्होंने पत्र में वाईसरोय इरविन को लिखा था, ''शांति के हित में अंतिम अपील करना आवश्यक है। हालांकि आपने मुझे साफ -साफ बता दिया है कि, भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई भी रियायत की आशा न रखूं लेकिन डॉ. सप्रू कल मुझे मिले और उन्होंने बताया कि आप कोई रास्ता निकालने पर विचार कर रहे हैं।"



गांधीजी ने पत्र में आगे लिखा, ''अगर फैसले पर थोड़ी भी विचार की गुंजाइश है तो आपसे प्रार्थना है कि, सजा को वापस लिया जाए या विचार करने तक स्थगित कर दिया जाए। गांधी जी ने आगे लिखा, ''अगर मुझे आने की आवश्कता होगी तो आऊंगा। याद रखिए कि दया कभी निष्फल नहीं जाती।"


गांधी जी द्वारा लिखे इस खत से साफ पता चलता है कि आखिरी समय तक उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों की सजा कम करवाने और उन्हें माफी दिलाने का प्रयास किया था। भगत सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए गांधीजी ने 29 मार्च, 1931 को गुजराती नवजीवन में लिखा था- ''वीर भगत सिंह और उनके दो साथी फांसी पर चढ़ गए। उनकी देह को बचाने के बहुतेरे प्रयत्न किए गए, कुछ आशा भी बंधी, पर वह व्यर्थ हुई। भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन वे हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।"


नेहरू को लेकर भगत सिंह के क्या विचार थे?


भगत सिंह जवाहर लाल नेहरू को लेकर क्या सोचते थे और क्या वह सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित थे ? इस सवाल का जवाब 1928 में भगत सिंह द्वारा लिखे गए एक पत्र से मिल जाता है। किरती नामक एक पत्र में ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार’ शीर्षक से भगत सिंह ने एक लेख लिखा था। इस लेख में उन्होंने बोस और नेहरू के नजरिये की तुलना की है। भगत सिंह ने अपने इस लेख में जहां एक तरफ नेहरू को आंतरराष्ट्रीय दृष्टि वाले नेता माना तो वहीं सुभाषचंद्र बोस को प्राचीन संस्कृति के पक्षधर के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ''इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है।" भगत सिंह सुभाषचंद्र बोस को एक बहुत भावुक बंगाली मानते थे जो अपनी संस्कृति पर गर्व करते थे। इसको स्पष्ट करने लिए भगत सिंह ने बोस के भाषण का भी अपने लेख में जिक्र किया है।


भगत सिंह ने कहा है, जहां एक तऱफ बोस अपने भाषण में कहते थे कि, हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा, तो वहीं फिर वह लोगों से वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूणा वाले भाषण में उन्होंने ‘राष्ट्रवादिता’ के संबंध में कहा है कि आंतरराष्ट्रीयवादीता, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है. हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ है अर्थात् सच,कल्याणकारी और सुन्दर.


वहीं भगत सिंह ने जवाहर लाल नेहरू का जिक्र करते हुए लिखा है, ''पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार बोस से बिल्कुल विपरीत हैं।" भगत सिंह ने बताया कि नेहरू कहते हैं — “जिस देश में जाओ वह यही समझता है कि, उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति शिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है। जवाहरलाल कहते हैं, ''प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।"


भगत सिंह के लेख से साफ है कि, वह एक तरफ जहां बोस को पुरातन युग पर विश्वास करने वाला बताते हैं तो वहीं जवाहर लाल नेहरू को परंपराओं से बगावत करने वाले नेता के तौर पर देखते हैं जिनकी अपनी एक आंतरराष्ट्रीय समझ भी है। भगत सिंह का मानना था कि,  बोस हर चीज की जड़ प्राचीन भारत में देखते हैं और मानते हैं कि भारत का अतीत महान था। दरअसल भगत सिंह यहां बोस से ज्यादा नेहरू को तवज्जो देते हैं।  उन्होंने लेख में लिखा है कि, पंजाब के युवाओं को बौद्धिक खुराक की शिद्दत से जरूरत है और यह उन्हें सिर्फ नेहरू से मिल सकती है।

Comments

  1. Wow iss blog ne meri Gandhiji aur bhagat singh ke riste ke bare puri soch badal di

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